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हंगामा है क्यूं बरपा…

RNE Special

बीकानेर सहित पूरी अदब की दुनिया में एक भूचाल सा आया हुआ है। सोशल मीडिया तो इससे भरा पड़ा है। जी, बात कर रहा हूं असगर वजाहत के जनवादी लेखक संघ के राष्ट्रीय अध्यक्ष पद से व नरेश सक्सेना के उत्तर प्रदेश प्रगतिशील लेखक संघ के अध्यक्ष पद से इस्तीफे की। इन दो लेखक संगठनों से अलग अलग हुए इस्तीफों ने लेखकों को भी दो भागों में बांट दिया है। एक धड़ा इस्तीफे के पक्ष में तो दूसरा धड़ा विपक्ष में। ये तो स्वाभाविक ही है। क्योंकि अदब की दुनिया में लेखक है, अंधभक्त नहीं। जो सदा एक राय, एक जुबान, एक विचार के हों।

असगर वजाहत के इस्तीफे पर बहस चल ही रही कि एक दिन वजाहत ने फेसबुक पर एक पोस्ट डाल सबको उत्तेजित कर दिया।

उन्होंने अपनी पोस्ट में लिखा – फिर वामपंथी संसद में फासिस्टों के साथ क्यों बैठते हैं। जाहिर है, उनके इस्तीफे के जो खिलाफ थे उनको ये जवाब था। अब इस पोस्ट को लेकर फिर बवाल मच गया है। दो पक्ष बन गए हैं। सवाल जवाब हो रहे हैं। बीकानेर में भी गंभीर रचनाकार इस मसले पर चिंतन कर रहे हैं।

बात पहले असगर वजाहत की। उन्होंने इस्तीफे की आज तक कोई वजह नहीं बताई। मगर आभास हो गया कि गोडसे पर उनके नाटक का मुद्दा है। जिस पर संगठन को एतराज था।

वहीं नरेश सक्सेना का अलग मुद्दा है। वे एक निजी चैनल के साहित्यिक कार्यक्रम का हिस्सा बन रहे हैं, ये पता चलते ही संगठन के साथियों ने उन पर वैचारिक आधार पर प्रहार शुरू कर दिए। ये दोनों इस्तीफे कई ठोस सवाल खड़े करते हैं। लेखक खुद किसी संगठन में जाने का निर्णय करता है और उसके साथ लंबी यात्रा करता है। एक स्वतंत्र लेखक व संगठन से जुड़े लेखक में एक महीन सा अंतर रहता है, ये तो मानना पड़ेगा। जब किसी संगठन से जुड़कर अहम पद का दायित्त्व निभाते हैं तो संगठन के नियमों को मानने की भी बाध्यता रहती है। क्योंकि ये बाध्यता खुद ही लेखक स्वीकारता है।

फिर वो स्वतंत्र लेखक की तरह निर्णय नहीं कर सकता। उसे संगठन की रीति नीति का भी ख्याल रखना पड़ता है। बहरहाल, इन दो इस्तीफों से लेखकों का एक अलग धड़ा खुश भी है। वो बोल कुछ नहीं रहा, मगर पूरा ध्यान रख रहा है। ऐसा लगता है उसकी कोई मुराद पूरी हो रही है। मगर इतना तो तय है कि इन दो इस्तीफों से अदब की राजनीति में बड़ा बदलाव आयेगा।

झोरड़ा ने बढ़ाया राजस्थानी का मान:

साहित्य अकादमी, नई दिल्ली का बाल साहित्य पुरस्कार 2024 का समारोह बाल दिवस 14 नवम्बर को लखनऊ में आयोजित हुआ। 24 भाषाओं के बाल साहित्यकारों को इस समारोह में पुरस्कार देकर सम्मानित किया गया।
राजस्थानी का बाल साहित्य पुरस्कार इस बार नागौर के प्रह्लाद सिंह झोरड़ा को मिला। झोरड़ा ने लखनऊ में राजस्थानी भाषा का मान बढाया। उनको ये पुरस्कार उनकी बाल काव्य कृति ‘ म्हारी ढाणी ‘ पर दिया गया। ये हम सब राजस्थानी रचनाकारों, राजस्थानियों के लिए गर्व की बात है। जय राजस्थान, जय जय राजस्थानी।

अकादमियों से सरकार बेखबर क्यों:

सरकार अपना एक साल पूरा करने के जश्न की तैयारियां कर रही है। कई घोषणाएं होंगी। कई काम शुरू होंगे। जिनके बारे में मुख्यमंत्री, मंत्री अभी से बखान करने लगे हैं। अच्छी बात है, एक साल निकलने की खुशी तो होती ही है।
मगर सीएम व मंत्रियों के सारे बयान पढ़े, बहुत गौर से पढ़े। कोई भी मंत्री साहित्य, कला व संस्कृति के संस्थानों पर कुछ नहीं बोला। प्रदेश में हिंदी, राजस्थानी, उर्दू, सिंधी, पंजाबी, संस्कृत, संगीत नाटक आदि की अकादमियां बनी हुई है। इनको लेकर सरकार का क्या विजन है, ये तो किसी राज के नुमाइंदे के मुंह से सुनने को नहीं मिला। इन अकादमियों को लेकर सरकार ने सिर्फ एक काम में तत्परता दिखाई। वो थी पिछली सरकार के समय के अध्यक्षों व बॉडी को भंग करने में। सब अकादमियों का चार्ज अफसरों को दे दिया।


अब एक साल से सब अकादमियां ठप्प। उनके पास प्रशासनिक काम है, इधर ध्यान ही क्यों दें। नजरअंदाजी का आलम ये है कि पिछली बॉडी ने जो पुरस्कार दिए उनकी राशि भी नहीं दी जा रही। बजट स्वीकृत, फिर भी नहीं दे रहे। ज्यूरी का मानदेय नहीं दिया। पांडुलिपि सहायता के पैसे नहीं दिए। पुस्तक प्रकाशन की रकम नहीं दी। साहित्यकारों के भुगतान रोकने में पता नहीं सरकार व प्रशासनिक अधिकारियों की क्या मंशा है। इसे उचित तो नहीं माना जा सकता। दुख इस बात का है कि जो लोग पिछली सरकार में इन अकादमियों का हिस्सा थे, वे भी नहीं बोल रहे। उलटा वो तो इस सरकार में भी फिर से पद पाने की जुगत बिठाने में लगे हुए हैं।
शेम! फिर काहे को भाई साहित्यकारों के खैरख्वाह बता सरकार से पिछली बार पद पाया। अदब में राजनीति आरम्भ से है, गलत भी नहीं, मगर ऐसी गंदी राजनीति तो इस एक दशक में ही देखने को मिली। जहां पद विचार पर भी हावी हो गया। जबकि सूचना ये है कि विधायकों, राज के दल के नेताओं के जरिये हर अकादमी में एक दर्जन से अधिक आवेदन अध्यक्ष पद के लिए राज के पास पहुंच गये हैं। राम बचाये ऐसे बदलने वाले अदबियो से।


के पैसा बोलता है….

बचपन से सुना था कि सरस्वती व लक्ष्मी में तालमेल कम ही बैठता है। पर इस दौर में तो खूब तालमेल दिख रहा है। शायद कलयुग है, इस कारण। देश के परिपेक्षय में बात करें तो बड़े साहित्यिक आयोजन भी आजकल स्पॉन्सर्ड होते हैं। पांच सितारा होटलों में लेखक ठहरते हैं। खूब आवभगत। खूब प्रदर्शन। आजकल उस पर बहस भी खूब चल रही है।
अब बात बीकानेर की करें तो यहां भी ऐसा ही देखने को मिलता है। जिसके पास पैसा है खर्च करने के लिए वो बड़ा कवि, बड़ा शायर, बड़ा बुद्धिजीवी। क्योंकि वो अनेक आयोजनों के खर्चे जो उठा लेता है। उपहार बांट देता है। छोटे छोटे पुरस्कार दे देता है। बस, फिर क्या है। मक्खन लगाने वाले उसे साहित्यकार के रूप में थरपवा देते हैं। कुछ गुणी साहित्यकार रात के अंधेरे में उनके नाम से कुछ लिखकर भी पहुंचा देते हैं। इस हालत पर जब एक लेखक से सवाल किया तो उन्होंने जवाब में गीत सुना दिया— के पैसा बोलता है।



मधु आचार्य ‘ आशावादी ‘ के बारे में 

मधु आचार्य ‘आशावादी‘ देश के नामचीन पत्रकार है लगभग 25 वर्ष तक दैनिक भास्कर में चीफ रिपोर्टर से लेकर कार्यकारी संपादक पदों पर रहे। इससे पहले राष्ट्रदूत में सेवाएं दीं। देश की लगभग सभी पत्र-पत्रिकाओं में आचार्य के आलेख छपते रहे हैं। हिन्दी-राजस्थानी के लेखक जिनकी 108 पुस्तकें प्रकाशित हो चुकी है। साहित्य अकादमी, दिल्ली के राजस्थानी परामर्श मंडल संयोजक रहे आचार्य को  अकादमी के राजस्थानी भाषा में दिये जाने वाले सर्वोच्च सम्मान से नवाजा जा चुका हैं। राजस्थानी भाषा साहित्य एवं संस्कृति अकादमी के सर्वोच्च सूर्यमल मीसण शिखर पुरस्कार सहित देशभर के कई प्रतिष्ठित सम्मान आचार्य को प्रदान किये गये हैं। Rudra News Express.in के लिए वे समसामयिक विषयों पर लगातार विचार रख रहे हैं।